Sunday, November 21, 2010

रुबाई



मुक्कमल  शायरी  अपनी  जख्मों  की कमाई  है
जहर-सा  दर्द  पी-पी  कर उम्र  अपनी  गवाई   है
जबसे   न   पीने    की    कसम   खायी   है यारों
ग़ज़ल     मायूस     बहुत,     नाराज    रुबाई   है
 

आग हुई है कोई लड़की

जब-जब
सूखी है उफनती नदी
लगा है
रोई है कोई लड़की,

जब-जब
मटमैला हुआ है मौसम
लगा है
मायूस हुई है कोई लड़की,

जब-जब मद्धिम पड़ी है चांदनी
लगा  है
गुम हुई है कोई लड़की,

जब-जब
दरका है शीशा
लगा है ठेस खायी है कोई लड़की,

जब-जब
फनफनाई है नागफनी
लगा है
कटीले तारों से
घिरी है कोई लड़की,

जब- जब
उठा है धुआं
लगा है
आग के हवाले हुई है कोई लड़की   

रुबाई

मेरे   जैसा   जीना     सीख

रोज़ हलाहल पीना सीख,

हर   पर्वत    गल   जायेगा

अपना बहा पसीना सीख

बेटा

जिसे

छत समझ कर

उम्र भर


सर पर


बोझ की तरह ढोया


वह

छाता भी न बन सका,

Saturday, November 20, 2010

रुबाई



मेरे   जैसा    बन     के      देख
जुल्म के  आगे   तन के    देख
रुका-झुका   न   ठोकर  खा  के
तेवर    मेरे    मन    के      देख

रुबाई



सूरत   से     मूरत     लगती     है
ठगी   गई   किस्मत    लगती  है,
बिना   पता   का   बंद    लिफाफा
हर लड़की   इक   ख़त  लगती  है
 

Friday, November 19, 2010

लिखते लिखते



पीर-पराई         लिखते लिखते
ग़ज़ल -रुबाई    लिखते लिखते
अपनी     सारी      उम्र    गवाईं 
भूख    कमाई   लिखते लिखते

लड़की

लड़की
इतनी मासूम हुई कि
शबनम बन गयी



लड़की
इतनी सकुचाई कि 
छुई मुई बन गयी



लड़की
इतनी खुबसूरत हुई कि
फूल बन गई



लड़की
इतनी गोरी हुई कि
चांदनी बन गई



लड़की
इतनी खिलखिलाई कि 
अल्हड झरनों की
किलकिलाहट बन गई



लड़की
इतनी चंचल हुई कि
इन्द्रधनुषी पंखो वाली
चिड़ियाँ बन गई



लड़की
इतनी भोली हुई कि
खिलौना बन गई



लड़की
इतनी मुस्कुरायी कि
ताजमहल बन गई



लड़की
इतनी सयानी हुई कि
बोझ बन गई



लड़की
इतनी पिघली कि
बर्फ का दरिया बन गई



लड़की
इतनी चुप हुई कि
तूफ़ान उठने के पूर्व की
ख़ामोशी बन गई





लड़की
इतनी जली कि
सुर्ख लाल
आग बन गई 

अपनेपन का कायल भोला



रोज़  हताहत   घायल    भोला
अपनेपन  का  कायल    भोला



खुल  कर  अमृत  बांटा सबको
पीता  स्वयं   हलाहल     भोला  



मिला न  मौसम  मिला सावन
दर दर  प्यासा   बादल    भोला



गर   मिल  जाती   भोली आँखे
टिक  जाता  बन  काज़ल भोला



ऐसे  मिली   निगोरी   किस्मत
थामे  किसका  आँचल    भोला



लिखे  श्याम  की  मधुर  बांसुरी
हर   राधा   का   पायल    भोला



फ़िक्र  न  जिसको  अपनी कोई
गीत-ग़ज़ल    मे  पागल भोला 




पत्रकारिता और साहित्य-लेखन के जरिये समाज में जाग्रति तो लाई ही जा सकती है भले ही सेवा और साधना संत सुधारक व उपदेशक कर सकते है , किन्तु कलमकार अपनी लेखनी के माद्ययम से देश-दुनिया को दृष्टि देने से नहीं चुकता  यह दीगर है की लेखकीय अनुभूतियों को समाज कैसे, किस रूप में ग्रहण करता है, यह समाज का दायित्व बनता है मेरा मानना है की सकारात्मक सोच और समय का सच उकेरना रचनाधर्मिता की पहली शर्त है
जाहिर सी बात है कि तेजी से बदलती इस दुनिया में विचारों से भी बदलाव आया है मन में बेचैनिया बड़ी है मानव मूल्यों में गिरावट आई है 'डगर पनघट कि 'कठिन हो गयी है इन सारी विसंगतियों के बावजूद लेखिय दायित्व -बोध का निर्वाह किया जाये


मेरी छोटी सी कोशिश कितना सार्थक होगी ,मुझे पता नहीं फिर भी कुछ कह रहा हूँ ,कर रहा हूँ निरंतर और निरंतर ........................................................अशांत भोला